सोच समझ

चादर हो गई बहुत पूरानी,
अब कर सोच समझ अभिमानी ।। टेक
अजब जुलाहे चादर बानी,
सूत करम की तानी ।
सुरति निरति को भरना दीना,
तब सब के मनमानी ।।
मैले दाग परे पापन के,
विषयान् में लपटानी ।।
ज्ञान को साबुन लाये न धौयो,
सत संगत के पानी ।।
भाई खराब आब गई सारी,
लोभ मोह में सानी ।।
ऐसे ही ओढ़त उम्र गवाई,
भली बुरी नहीं जानी ।।
शंका मरण जानू जिय अपने,
है यह बस्तु बिरानी ।
कहे कबीर याहि राखु जानत से,
हाथ नहीं फिर आनी ।।